धम्मपद ३८ , ३९ चित्तहत्थ थेरा वठु

थेरा चित्तहत्थ थेरा की कहानी | 

जब भगवान बुद्ध जेतवन मठ में रह रहे थे तब उन्होंने चित्तहत्थ थेरा के संधर्भ में यह कहा | 

सावत्थी से एक आदमी अपने बैल को ढूंढते ढुंडते वन में पहुँचा , उसे बहुत भूख लगी इसलिये गाव के नझदिगी मठ में गया , जहा उसे सुबह का बचा हुवा खाना दिया गया | जब वह खाना खा रहा था उसे अहसास हुवा के वह बहुत मेहनत करता है फिर भी उसे इतना अच्छा खाना नहीं मिलता , अगर वह भी भिक्खु बन जाये तो उसे भी अच्छा खाने को मिलेगा | तो उसने भिक्खु संघ में प्रवेश के लिये भिक्खुवों से पूछा | मठ में उसने भिक्खुवों की सारे कर्तव्यों का पालन किया , क्योंकि वहा बहुत सारा खाना मिलता था तो उसका वजन बहुत कम समय में बढ़ गया | थोड़े दिनों बाद उसको भिक्षा माँगकर खाना खाना थकावट भरा लगने लगा तो वो ग्रहस्त जीवन में लौट गया | थोड़े दिनों बाद उसे घर का जीवन बहुत श्रमपूर्ण लगा इसलिए वह दुसरी बार मठ चला गया , भिक्खु बनने के लिए | दूसरी बार फिर उसने फिर छोड़कर घर चला गया | तीसरी बार फिर मठ चला गया और फिर वापस गृहस्त बना | ऐसे जाने आने की प्रक्रिया छह बार चली , वह ऐसे केवल अपनी लहर पर चलता रहा इसलिए उसका नाम पड़ा थेरा चित्तहत्थ | 

जब वह घर और मठ में आता और जाता रहा , उसी दौरान उसकी पत्नी गर्भवती बनी | एक दिन आखरी रात घर में रुका था , वह घर के क्षयन कक्ष में पहुँचा जब उसकी पत्नी सो रही थी | वो करीब करीब अर्ध नग्न थी क्योंकी उसके कपडे नीचे गिर गये थे | वो जोर से नाक और मुँह से खुर्राटे मार रही थी और लाळ मुँह से निचे जमीन पर गिर रही थी | जिस तरह उसका मुँह खुला था और पेट फुला हुवा था वह शव के तरह दिख रही थी | उसे वैसे देखकर उसे जल्दी से शरीर के अस्थिर और अरुचिकर होने का अहसास हुवा और वह सोच में पड़ा के " में कही बार भिक्खु बना पर केवल इस स्त्री के कारण जादा देर तक भिक्खु बन कर नही रह सका | " इसलिए , वह पिले कपडे लेकर सातवीं बार मठ पहुँचा | जैसे वह रास्ते से गुज़र रहा था वह बार बार कह रहा था 'अस्थायी' और 'अरुचिकर', ऐसे उसे सोतापन्न फल मिला जब रास्ते से वह मठ पहुँच रहा था | 

जब वह मठ पहुँचा उसने भिक्खुवों से व्यवस्था में प्रवेश मांगा | उन्होंने इनकार किया और कहा , " हम तुम्हें व्यवस्था में प्रवेश नहीं दे सकते , तुम इतनी बार अपने सर के बाल मुंडवा ते हो के अब तक तुम्हारा सर मट्ठा पत्थर हो चुका है | " फिर , भी उसने व्यवस्था में प्रवेश पाने की अनुमति मांगता रहा आखिए मे वे राजी हुवे | बहुत कम दिनों में वह विश्लेषण अंत दृष्टि से अरहंत बना | दुसरे भिक्खुवों ने जब लंबे समय तक मठ में उसे देखा तो अचरज में पड़ गये और उन्होंने उससे इसका कारन पुछा | इसपर उसने जवाब दिया , " में घर गया जबतक मुझमे आसक्ति थी , पर अब मुझमे आसक्ति नहीं रही | " भिक्खुवों को उसपर यकीन नही हो रहा तब वे बुद्ध के पास गये और सारी बात बतायी | उन सबको बुद्ध ने बताया , " थेरा चित्तहत्थ सच कह रहा है , वह घर और मठ में आता जाता रहा क्योंकि उसमे आसक्ति थी , उसका मन दृढ़ नहीं था और उसे धम्म की समझ नही थी | पर इस क्षण थेरा चित्तहत्थ अरहंत बन चुका है , उसने बुरा और अच्छा बाहर कर दिया है | 

तब बुद्ध ने यह धम्मपद कहा | 

" अगर मनुष्य का मन अस्थिर है , अगर वह असली धम्म से अज्ञानी है , अगर उसकी आस्था में संदेह है , तो फिर उसका ज्ञान कभी दोषहीन नहीं होगा  | "

" अगर आदमी का मन जुनून से मुक्त होगा , अगर वह दुषित कर्म से विहीन होगा , अगर उसने अच्छे या बुरे दोनों का त्याग किया है , और वह अगर चौकस है , ऐसे मनुष्य को कोई खतरा नहीं है  | "

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