धम्मपद ३६ उक्कण्ठित भिक्खु वठु

नाराज भिक्खु की कहानी | 

जब भगवान बुद्ध जेतवन मठ में रह रहे थे , उन्होंने यह धम्मपद उस जवान भिक्खु के संदर्भ में कही जो साहुकार का बेटा था | 

एक समय सावत्थी में एक साहुकार का लड़का रहता था | इस नौजवान ने भिक्खु से पूछा के उसने ऐसा क्या करना चाहिए जिससे बुराइयों से बच सके , जो उसके घर भिक्षा माँगने आया करता था | भिक्खु ने बताया के उसने अपने संपत्ति के तीन भाग करने चाहिये , एक भाग से अपना व्यापार चलाये , एक भाग से अपना परिवार पाले और एक भाग दान में लगाये | उसने वैसा ही किया जैसा भिक्खु ने बताया था और फिर पूछा अब आगे क्या करना चाहिये | फिर उसे आगे बताया की उसने धम्म के तीन रत्नों ( बुद्ध , बुद्ध ने बताया हुवा धर्म  और बौद्ध संघ ) में शरण लेनी चाहिये और पाँच उपदेशों / पंचशील का पालन करे | दूसरी बार पूछने पर दस उपदेश / शील का पालन करने को कहा | तीसरी बार फिर पूछने पर बताया के दुनियादारी त्याग करके बुद्ध संघ में शामिल हो जाए | उस नौजवान ने सारी निर्देशों का पालन किया और भिक्खु बन गया | 

भिक्खु के तोर पर उसे अभिधम्मा सिखाया गया एक शिक्षक के द्वारा और विनय दूसरे शिक्षक के द्वारा | इस तरह से सिखाने पर उसे लगा के ये बहुत सारी चीजे है जिसे याद करना पड़ता है , अनुशाषन पालन के नियम बहुत जादा और सख्त है , इतने जादा है के खुद के बाहु फ़ैलाने का भी स्वातंत्र्य नहीं है | उसने सोचा के अपने गृहस्त जीवन में लौट जाना ही सही रहेगा | शंका और असंतोष के चलते हुवे , वह नाखुश रहा और कर्तव्यों को नजर अंदाज करने लगा , वो पतला और क्षीण भी हो गया | जब बुद्ध को इस बारे में पता चला ,  उन्होंने उस नौजवान भिक्खु से कहा " अगर तुम केवल अपना मन काबू कर सको तो , तुम्हें और कुछ काबू करने की जरूरत नहीं है , तो अपने मन का संरक्षण करो | 

तब भगवान बुद्ध ने धम्मपद में कहा | 
" मन को देखना बहुत मुश्किल है , बहुत नाज़ुक और शुष्म, वह चलता और जहा अच्छा लगे बैठ जाता है  | प्रज्ञावान ने खुद के मन का बचाव करना चाहिए, संरक्षित मन ख़ुशियाँ लाता है | "

प्रवचन के ख़तम होते ही वह नौजवान भिक्खु और दुसरे कही सारे भिक्खु अरहंत बन गए | 

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