धम्मपद ६१ महकस्सप थेरा सद्विविकारिका वठु

थेरा महकस्सप के रहिवासी छात्र की कहानी | 

जब बुद्ध जेतवन मठ मे रह रहे थे तब उन्होंने यह धम्मपद थेरा महाकस्सप के उस रहिवासी छात्र के बारे मे कही | 

जब थेरा महकस्सप राजगृह नगर के पास रह रहे थे , उसके साथ दो जवान भिक्खु रह रहे थे | उनमे से एक थेरा महकस्सप से आदरयुक्त , आज्ञाकारी , कर्तव्य परायण था , लेकिन दूसरा नही था |  जब थेरा महकस्सप को दूसरे को डाटा क्योंकि वह अपने कर्तव्यों को निभाने मे सुस्त था , तब उसने बहुत अपमान महसूस किया |  एक मोके पर वह गृहस्थ के घर गया जो थेरा महकस्सप का शिष्य था , और उससे झूठ बोला के महाकस्सप बीमार है | तब उसे उसके मनचाहा खाना मिला ले जाने के लिए , लेकिन उसने वह खाना बिच रास्ते मे ही खुद खा लिया | 

जब थेरा महकस्सप को इस कृत्य के लिए उसे डाटा तब वह बहुत क्रोधित हुवा | अगले दिन जब थेरा महकस्सप भिक्षा मांगने बाहर पड़े तो वह मुर्ख जवान भिक्खु वही ठहरा , उसने बर्तन और बाकी सामान तोडा और मठ को आग लगा दी | 

जब राजगृह के भिक्खुवों ने बुद्ध को यह बताया , तब बुद्ध ने कहा अगर थेरा महाकस्सप अकेला रहता तो ही उसके लिए ठीक था , मुर्ख के साथ रहने के बजाय | 

तब बुद्ध ने यह धम्मपद कहा | 

" अगर कोई व्यक्ति साथी धुंढ रहा हो तब अगर उसे उसके जैसा या उससे बढ़िया न मिले , तो उसे अकेले ही दृढ़ता से चलने दो , मूर्खों के साथ सहचर नही बना जा सकता | "

तब राजगृह नगर मे रह रहे भिक्खु सोत्तापन्न बन गये | 

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