धम्मपद ४०० सरिपुत्तत्थेरा वठु

थेरा सारिपुत्त की कहानी |

जब भगवान बुद्ध वेळुवन मठ मे ठहरे हुवे थे तब यह धम्मपद उन्होंने भंते सारिपुत्त के संदर्भ में कही |

जब भगवान बुद्ध वेळुवन मठ में रुके हुवे थे , तब भंते सारिपुत्त पाँच सो भिक्खुवों के साथ नलका गाव में आये , वे भिक्षा के लिये अपने माता के घर के द्वार पर रुके |  उनके माता ने उन सबको घर में आने दिया | पर जब वह उसके पुत्र सारिपुत्त को खाना परोस रही थी तब उसने कहा , ओ तुम बचा हुवा खाने वाले , तुम जिसने अस्सी करोड़ त्याग दिए भिक्खु बनने के लिए , तुमने हमें बरबाद कर दिया | " तब , उसने भिक्षा में दूसरे भिक्खुवों को खाना दिया और रूखे स्वर में कहा " तुम सब ने मेरे बेटे को उम्मीद में इस्तेमाल किया है | अब खाना खाव | भंते सारिपुत्त ने जवाब ने कुछ नहीं कहा और नर्मी से वापस मठ में आ गए | वापस मठ में भिक्खुवों ने बुद्ध को बताया किस तरह भंते सारिपुत्त ने धीरज से अपनी माता की डाट और गलियों का सामना किया | उन सबको बुद्ध ने कहा अरहंत कभी क्रोधित नहीं होते , वे कभी खुद का आपा नहीं खोते |

तब बुद्ध ने यह धम्मपद कहा |
" मै ब्राह्मण उसे कहता हु जो गुस्सा नहीं होता , जो तपस्या करता है , जिसको सदगति है और तृष्णा से मुक्त है , जिसका अपने वासनाओ पर नियंत्रण है और यह शरीर उसका आखरी जन्म है  | "

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